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त्रय॑स्त्रिंशद्दे॒वता॒स्त्रीणि॑ च वी॒र्याणि प्रिया॒यमा॑णा जुगुपुर॒प्स्व॑न्तः। अ॒स्मिंश्च॒न्द्रे अधि॒ यद्धिर॑ण्यं॒ तेना॒यं कृ॑णवद्वी॒र्या॑णि ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्रयःऽत्रिंशत्। देवताः। त्रीणि। च। वीर्याणि। प्रियऽयमाणाः। जुगुपुःः। अप्ऽसु। अन्तः। अस्मिन्। चन्द्रे। अधि। यत्। हिरण्यम्। तेन। अयम्। कृणवत्। वीर्याणि ॥२७.१०॥

अथर्ववेद » काण्ड:19» सूक्त:27» पर्यायः:0» मन्त्र:10


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

आशीर्वाद देने का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (प्रियायमाणाः) प्रिय मानते हुए (त्रयस्त्रिंशत्) तेंतीस [८ वसु अर्थात् अग्नि, पृथिवी, वायु, अन्तरिक्ष, आदित्य, द्यौः वा प्रकाश, चन्द्रमा और नक्षत्र,−११ रुद्र अर्थात् प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त, धनञ्जय यह दस प्राण और ग्यारहवाँ जीवात्मा,−१२ महीने,−१ इन्द्र अर्थात् बिजुली,−एक प्रजापति वा यज्ञ] (देवताः) देवताओं (च) और (त्रीणि) तीन [कायिक, वाचिक और मानसिक] (वीर्याणि) वीर कर्मों ने (अप्सु अन्तः) आप्त प्रजाओं के बीच (अस्मिन्) इस (चन्द्रे) आनन्द देनेवाले [जीवात्मा] में (अधि) अधिकारपूर्वक (यत्) जिस (हिरण्यम्) कमनीय तेज को (जुगुपुः) रक्षित किया है, (तेन) उसी [तेज] से (अयम्) यह [जीवात्मा] (वीर्याणि) वीर कर्मों को (कृणवत्) करे ॥१०॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा ने वसु आदि तेंतीस देवताओं शारीरिक आदि शक्तियों और पूर्व संस्कारों द्वारा मनुष्यों में जो तेज स्थापित किया है, मनुष्य उस तेज को विद्या आदि द्वारा प्रकाशित करके पराक्रम करता रहे ॥१०॥
टिप्पणी: १०−(त्रयस्त्रिंशत्) अथर्व०६।१३९।१। अष्टौ वसवो यथा, अग्निश्च पृथिवी च वायुश्चान्तरिक्षं चादित्यश्च द्यौश्च चन्द्रमाश्च नक्षत्राणि चेति, एकादश रुद्रा यथा प्राणापानव्यानसमानोदाननागकूर्मकृकलदेवदत्त-धनञ्जया इति दश प्राणा आत्मैकादशः, द्वादश मासाः, इन्द्रश्च प्रजापतिश्चेति (देवताः) देवाः (त्रीणि) कायिकवाचिकमानसानि (वीर्याणि) वीरकर्माणि। सामर्थ्यानि (प्रियायमाणाः) कर्तुः क्यङ् सलोपश्च। पा०३।१।११। प्रिय-क्यङ्। प्रिय इवाचरतीति प्रियायते, शानच्। प्रिया इवाचरन्त्यः (जुगुपुः) ररक्षुः (अप्सु) म०३। आप्तासु प्रजासु (अन्तः) मध्ये (अस्मिन्) समीपवर्तिनि (चन्द्रे) आह्लादके जीवात्मनि (अधि) अधिकारपूर्वकम् (यत्) (हिरण्यम्) कमनीयं तेजः (तेन) तेजसा (अयम्) जीवात्मा (वीर्याणि) ॥