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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
मनुष्य को वृद्धि करने का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (यथा) जैसे (यमाय)न्यायकारी राजा के लिये (पञ्च) पाँच [पृथिवी, जल, तेज, वायु और आकाश, इन पाँचतत्त्वों] से सम्बन्धवाले (मानवाः) मनुष्यों ने (हर्म्यम्) स्वीकार करने योग्यराजमहल (अवपन्) फैलाकर बनाया है। (एव) वैसे ही मैं (हर्म्यम्) सुन्दर राजमहल (वपामि) फैलाकर बनाता हूँ, (यथा) जिस से (मे) मेरे लिये (भूरयः) बहुत से (असत)तुम होओ ॥५५॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को बड़ेपुरुषों के समान अच्छे-अच्छे शिल्पियों द्वारा दृढ़ सुखप्रद गढ़, विद्यालय, न्यायालय, आदि घर बनवाकर सबकी यथायोग्य रक्षा करनी चाहिये ॥५५॥
टिप्पणी: ५५−(यथा) सादृश्ये (यमाय) न्यायकारिणे शासकाय (हर्म्यम्) अघ्न्यादयश्च। उ० ४।११२। हृञ्स्वीकारे-यक्, मुडागमः। हर्म्यं गृहनाम-निघ० ३।४। स्वीकरणीयं महिलायोग्यं गृहम्।धनिनां गृहम् (अवपन्) डुवप बीजसन्ताने। बीजवद् विस्तार्य निर्मितवन्तः (पञ्चमानवाः) अ० १२।१।१५। पृथिव्यादिपञ्चभूतसंबन्धिनो मनुष्याः (एव) एवम् (वपामि) संपादयामि। निर्मिमे (हर्म्यम्) राजगृहम् (यथा) येन प्रकारेण (मे)मह्यम् (भूरयः) बहवः (असत) अस्तेर्लेटि, अडागमः। यूयं स्यात् ॥