यास्ते॑ धा॒नाअ॑नुकि॒रामि॑ ति॒लमि॑श्राः स्व॒धाव॑तीः। तास्ते॑ सन्तू॒द्भ्वीःप्र॒भ्वीस्तास्ते॑ य॒मो राजानु॑ मन्यताम् ॥
पद पाठ
या: । ते । धाना: । अनुऽकिरामि । तिलऽमिश्रा: । स्वधाऽवती: । ता: । ते । सन्तु । उत्ऽभ्वी: । प्रऽभ्वी: । ता: । ते । यम: । राजा । अनु । मन्यताम् ॥४.२६॥
अथर्ववेद » काण्ड:18» सूक्त:4» पर्यायः:0» मन्त्र:26
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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
यजमान के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - [हे यजमान !] (ते)तेरे लिये (याः) जिन (तिलमिश्राः) तिलों से मिली हुई, (स्वधावतीः) उत्तमअन्नवाली (धानाः) धानाओं [सुसंस्कृत पौष्टिक पदार्थों] को (अनुकिरामि) [अग्निमें] मैं [ऋत्विज्] अनुकूल रीति से फैलाता हूँ। (ताः) वे [सब सामग्री] (ते) तेरेलिये (उद्भ्वीः) उदय करानेवाली और (प्रभ्वीः) प्रभुतावाली (सन्तु) होवें, और (ताः) उन [सामग्रियों] को (ते) तेरे लिये (यमः) संयमी (राजा) राजा [शासक अर्थात्याजक पुरुष] (अनु) अनुकूल (मन्यताम्) जाने ॥२६॥
भावार्थभाषाः - यज्ञ करानेवाला पुरुषयथाविधि संशोधित तिल, जौ, चावल आदि जिन सामग्रियों से हवन करता है, उसके द्वारावायुमण्डल की शुद्धि से संसार का उपकार और यजमान का अधिक पुण्य होता है ॥ २६, २७॥यह मन्त्र आगे है-अ० १८।४।४३ और कुछ भेद से आ चुका है-अ० १८।३।६९ ॥
टिप्पणी: २७−(याः) (ते) तुभ्यम् (धानाः) दधातेर्नप्रत्ययः, टाप्। सुसंस्कृतपौष्टिकपदार्थान् (अनुकिरामि) आनुकूल्येन क्षिपामि प्रसरामि (तिलमिश्राः) तिलैर्मिश्रिताः (स्वधावतीः) उत्तमान्नयुक्ताः (ताः) (सन्तु) (उद्भ्वीः) उद्भ्व्यः। उदयंभावयित्र्यः। अन्यत् पूर्ववत्-अ० १८।३।६९ ॥