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प्र के॒तुना॑बृह॒ता भा॑त्य॒ग्निरा रोद॑सी वृष॒भो रो॑रवीति।दि॒वश्चि॒दन्ता॑दुप॒मामुदा॑नड॒पामु॒पस्थे॑ महि॒षो व॑वर्ध ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र । केतुना । बृहता । भाति । अग्नि: । आ । रोदसी इति । वृषभ: । रोरवीति । दिव: । चित् । अन्तात् । उपऽमाम् । उत् । आनट् । अपाम् । उपऽस्थे । महिष: । ववर्ध ॥३.६५॥

अथर्ववेद » काण्ड:18» सूक्त:3» पर्यायः:0» मन्त्र:65


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

राजा के कर्त्तव्य का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्निः) अग्निसमानतेजस्वी राजा (बृहता) बड़ी (केतुना) बुद्धि के साथ (प्र भाति) चमकता जाता है, [जैसे] (वृषभः) वृष्टि करानेवाला [सूर्य का ताप] (रोदसी) आकाश और पृथिवी में (आ)व्यापकर (रोरवीति) [बिजुली, मेघ, वायु आदि द्वारा] सब ओर से गरजता है। और (दिवः)सूर्यलोक के (चित्) ही (अन्तात्) अन्त से (उपमाम्) [हमारी] निकटता को (उत्)उत्तमता से (आनट्) वह [सूर्य का ताप] व्यापता है, [वैसे ही] (महिषः) वह पूजनीयराजा (अपाम्) प्रजाओं की (उपस्थे) गोद में (ववर्ध) बढ़ता है ॥६५॥
भावार्थभाषाः - जैसे सूर्य अपने तापद्वारा पृथिवी से जल खींचकर और फिर बरसा कर आनन्द बढ़ाता है, वैसे ही जो प्रतापीराजा प्रजा से कर लेकर प्रजा को सुख देता है, वह प्रजाप्रिय होकर संसार मेंबढ़ता है ॥६५॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।८।१। तथा सामवेद में−पू०१।७।९। दूसरा पाद ऋग्वेद में है−६।७३।१ ॥
टिप्पणी: ६५−(प्र) प्रकर्षेण (केतुना)प्रज्ञया-निघ० ३।९ (बृहता) महता (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (वृषभः) वर्षकः सूर्यतापः (रोरवीति) भृशं रौति। विद्युदादिना भृशं शब्दं करोति (दिवः) सूर्यलोकस्य (चित्)एव (अन्तात्) (उपमाम्) सामीप्यम् (उत) उत्तमतया (आनट्) अशूङ् व्याप्तौ लिटि, एश्त्वे, एषो लुक् छान्दसः, व्रश्चादिना षत्वम्। झलां जशोऽन्ते। पा० ८।२।३।९।इति डकारः। वावसाने। पा० ८।४।५६। डस्य टः। आनट्, व्याप्तिकर्मा-निघ० २।१८। आनशे।अश्नुते। व्याप्नोति (अपाम्) प्रजानाम् (उपस्थे) उपस्थाने। उत्सङ्गे (महिषः)महान्-निघ० ३।३। पूजनीयो राजा (ववर्ध) लडर्थे लिट्। ववृधे। वर्धते ॥