उच्छ्व॑ञ्चस्वपृथिवि॒ मा नि बा॑धथाः सूपाय॒नास्मै॑ भव सूपसर्प॒णा। मा॒ता पु॒त्रं यथा॑सि॒चाभ्येनं भूम ऊर्णुहि ॥
पद पाठ
उत् । श्वञ्चस्व । पृथिवि । मा । नि । वाधथा: । सुऽउपायना । अस्मै । भव । सुऽउपसर्पणा । माता । पुत्रम् । यथा । सिचा । अभि । एनम् । भूमे । ऊर्णुहि ॥३.५०॥
अथर्ववेद » काण्ड:18» सूक्त:3» पर्यायः:0» मन्त्र:50
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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
पितरों और सन्तानों के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (पृथिवी) हे पृथिवी तू (उत् श्वञ्चस्व) फूलजा [फूल के समान खिल जा], (मानिबाधथाः) मत दबी जा, (अस्मै)इस [पुरुष] के लिये (सूपायना) अच्छे प्रकार पाने योग्य और (सूपसर्पणा) भलेप्रकार चलने योग्य (भव) हो। (यथा) जैसे (माता) माता (पुत्रम्) पुत्र को (सिचा)अपने आँचल से, [वैसे] (भूमे) हे भूमि ! (एनम्) इस [पुरुष] को [अपने रत्नों से] (अभि) सब ओर से (ऊर्णुहि) ढक ले ॥५०॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य विज्ञानपूर्वक पृथिवी के पदार्थों और गुणों का प्रकाश करते हैं, वे अनेक रत्नों को पाकरऐसे सुखी होते हैं, जैसे माता से रक्षित बालक आनन्द पाता है ॥५०॥इस मन्त्र काउत्तरार्ध आ चुका है-अथ० १८।२।५० ॥
टिप्पणी: ५०−(उच्छ्वञ्चस्व) श्वचि गतौ-लोट्। उदेहि।पुलकिता भव (पृथिवि) (मा नि बाधथाः) संपीडिता मा भूः (सूपायना) सु+उप+अयना।सुखेन प्राप्तव्या (अस्मै) (भव) (सूपसर्पणा) सु+उप+सर्पणा। सुखेन गन्तव्या (माता) जननी (पुत्रम्) सन्तानम् (यथा) (सिचा) चेलाञ्चलेन (अभि) सर्वतः (एनम्)जिज्ञासुम् (भूमे) हे पृथिवि (उर्णुहि) आच्छादय स्वरत्नैः ॥