अग्नि॑ष्वात्ताःपितर॒ एह ग॑च्छत॒ सदः॑सदः सदत सुप्रणीतयः। अ॒त्तो ह॒वींषि॒ प्रय॑तानि ब॒र्हिषि॑र॒यिं च॑ नः॒ सर्व॑वीरं दधात ॥
पद पाठ
अग्निऽस्वात्ता: । पितर: । आ । इह । गच्छत । सद:ऽसद: । सदत । सुऽप्रनीतय: । अत्तो इति । हवींषि । प्रऽयतानि । बर्हिषि । रयिम् । च । न: । सर्वऽवीरम् । दधात ॥३.४४॥
अथर्ववेद » काण्ड:18» सूक्त:3» पर्यायः:0» मन्त्र:44
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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
पितरों और सन्तानों के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (अग्निष्वात्ताः) हेअग्निविद्या [वा शारीरिक और आत्मिक तेज] के ग्रहण करनेवाले (पितरः) पालनकरनेवाले पितरो ! (इह) यहाँ (आ गच्छत) आओ और (सुप्रणीतयः) अत्युत्तम नीतियोंवालेतुम (सदः-सदः) सभा-सभा में (सदत) बैठो। और (बर्हिषि) वृद्धिकारक व्यवहार के बीच (प्रयतानि) शुद्ध [वा प्रयत्न से शुद्ध किये] (हवींषि) खाने योग्य अन्नों को (अत्तो) अवश्य खाओ, (च) और (नः) हमारे लिये (सर्ववीरम्) सब वीर पुरुषों केप्राप्त कराने हारे (रयिम्) धन को (धत्त) धारण करो ॥४४॥
भावार्थभाषाः - विद्वान् लोग सभाओंमें उपदेश करके अग्नि अर्थात् सूर्य, बिजुली और अग्नि आदि विद्याओं द्वारामनुष्यों का शारीरिक तथा आत्मिक बल बढ़ावें और श्रद्धा से दिये हुए अन्न आदि कोग्रहण करके उन्हें पुरुषार्थी, श्रीमान् और वीर सेनापति बनावें ॥४४॥यह मन्त्रकुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।१५।११। और यजुर्वेद में−१९।५९ तथा महर्षिदयानन्दकृत ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका पितृयज्ञविषय में व्याख्यात है॥
टिप्पणी: ४४−(अग्निष्वात्ताः) अग्नि+सु+आङ्+ददातेः-क्त। अग्निः सूर्यविद्युदग्निविद्याशारीरिकात्मिकतेजो वा आत्तं गृहीतं यैस्ते (पितरः) (इह) अस्मिन् काले (आ गच्छत) (सदः सदः) सदसि सदसि (सदत) सीदत। उपविशत (सुप्रणीतयः) अत्युत्तमनीतिमन्तः (अत्तो) अत्त-उ। भक्षयतैव (हवींषि) अदनीयानि भोजनानि (प्रयतानि) म० ४२।शुद्धानि। प्रयत्नेन साधितानि (बर्हिषि) वृद्धिकरे व्यवहारे (रयिम्) धनम् (च) (नः) अस्मभ्यम् (सर्ववीरम्) सर्वे वीराः प्राप्यन्ते यस्मात् तम् (दधात) धरत॥