आचार्य और ब्रह्मचारी के कर्त्तव्य का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - [हे जीव !] तू (सूर्यम्) सूर्य [तत्त्व] को (चक्षुषा) नेत्र से, (वातम्) वायु को (आत्मना)प्राण से (गच्छ) प्राप्त हो, (च) और (धर्मभिः) धर्मों [उनके धारण गुणों] से (दिवम्) आकाश को (च) और (पृथिवीम्) पृथिवी को (गच्छ) प्राप्त हो (वा) और (अपः)जल को (गच्छ) प्राप्त हो, और (ओषधीषु) ओषधियों [अन्न आदिकों] में (शरीरैः) [उनके] अङ्गों सहित (प्रति तिष्ठ) प्रतिष्ठा पा, (यदि) क्योंकि (तत्र) वहाँ [उनसब में] (ते) तेरा (हितम्) हित है ॥७॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य नेत्र आदिइन्द्रियों की रचना और उपकारों से सूर्य आदि के तत्त्वों को जानकर विज्ञानद्वारा अन्न आदि पदार्थों और उनके अङ्गों से अपना और संसार का भला करते हैं, वेही सर्वहितकारी होते हैं ॥७॥मन्त्र ७, ८ कुछ भेद से ऋग्वेद में हैं−१०।१६।३, ४और ऋग्वेदपाठ महर्षिदयानन्दकृतसंस्कारविधि अन्त्येष्टिप्रकरण में उद्धृत है॥