बार पढ़ा गया
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
परमात्मा और जीवात्मा के स्वरूप का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (एनम्) इस [सर्वव्यापक] को (सनातनम्) सनातन [नित्य स्थायी परमात्मा] (आहुः) वे [विद्वान्] कहते हैं, (उत) और वह (अद्य) आज [प्रतिदिन] (पुनर्णवः) नित्य नवा (स्यात्) होता जावे। (अहोरात्रे) दिन और रात्रि दोनों (अन्यो अन्यस्य) एक दूसरे के (रूपयोः) दो रूपों में से (प्र जायेते) उत्पन्न होते हैं ॥२३॥
भावार्थभाषाः - नित्यस्थायी परमात्मा के गुण जिज्ञासुओं को नित्य नवीन विदित होते जाते हैं, जैसे दिन रात्रि से और रात्रि दिन से नित्य नवीन उत्पन्न होते हैं ॥२३॥
टिप्पणी: २३−(सनातनम्) म० २२। सदा वर्तमानम् (एनम्) सर्वव्यापकं परमात्मानम् (आहुः) कथयन्ति विद्वांसः (उत) अपि (अद्य) वर्तमाने दिने। प्रतिदिनम् (स्यात्) (पुनर्णवः) वारं वारं नवीनः (अहोरात्रे) रात्रिदिने (प्र जायेते) उत्पद्येते (अन्योऽन्यस्य) कर्मव्यतिहारे सर्वनाम्नो द्वे वाच्ये समासवच्च बहुलम्। इति द्वित्त्वम्। असमासवद्भावे पूर्वपदस्थस्य सुपः सुर्वक्तव्यः। वा० पा० ८।१।१२। इति पूर्वपदात् सुपः सुः। परस्परस्य (रूपयोः) स्वरूपयोः सकाशात् ॥