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यद॑ग्ने अ॒द्य मि॑थु॒ना शपा॒तो॒ यद्वा॒चस्तृ॒ष्टं ज॒नय॑न्त रे॒भाः। म॒न्योर्मन॑सः शर॒व्या॒ जाय॑ते॒ या तया॑ विध्य॒ हृद॑ये यातु॒धाना॑न् ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यत् । अग्ने । अद्य । मिथुना । शपात: । यत् । वाच: । तृष्टम् । जनयन्त । रेभा: । मन्यो: । मनस: । शरव्या । जायते । या । तया । विध्य । हृदये । यातुऽधानान् ॥५.४८॥

अथर्ववेद » काण्ड:10» सूक्त:5» पर्यायः:0» मन्त्र:48


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

शत्रुओं के नाश का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) हे अग्नि [समान तेजस्वी राजन् !] (यत्) जो (अद्य) आज (मिथुना) दो हिंसक मनुष्य [सत्पुरुषों से] (शपातः) कुवचन बोलते हैं, और (यत्) जो (रेभाः) शब्द करनेवाले [शत्रु लोग] (वाचः) वाणी की (तृष्टम्) कठोरता (जनयन्त) उत्पन्न करते हैं, (मन्योः) क्रोध से (मनसः) मन की (या) जो (शरच्याः) बाणों की झड़ी (जायते) उत्पन्न होती है, (तया) उस से (यातुधानान्) दुःखदायिओं को (हृदये) हृदय में (विध्य) तू बेध ले ॥४८॥
भावार्थभाषाः - राजा दुर्वचनभाषियों को विचारपूर्वक दण्ड देता रहे ॥४८॥ यह मन्त्र आचुका है-अ० ८।३।१२ ॥
टिप्पणी: ४८−अयं मन्त्रो व्याख्यातः-अ० ८।३।१२ ॥