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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
शत्रुओं के नाश का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (वैश्वानरस्य) सब नरों का हित करने हारा [राजा] के (दंष्ट्राभ्याम्) [प्रजारक्षण और शत्रुनाशन रूप] दोनों डाढ़ों से (हेतिः) वज्र ने (तम्) उस [शत्रु] को (सम् अभि अधात्) दबोच लिया है। (इयम्) यह (आहुतिः) आहुति [होम का चढ़ावा], (देवी) उत्तम गुणवाली (सहीयसी) अधिक बलवाली (समित्) समिधा [काष्ठ घृत आदि] (तम्) उसको (प्सातु) खा जावे ॥४३॥
भावार्थभाषाः - प्रजापालक राजा उपद्रवियों को सदा वश में रक्खे और उन को ऐसा नष्ट कर देवे जैसे हवन में उत्तम सामग्री और काष्ठ आदि से रोगकारक दुर्गन्ध आदि नष्ट हो जाते हैं ॥४३॥
टिप्पणी: ४३−(वैश्वानरस्य) अ० १।१०।४। सर्वनरहितस्य राज्ञः (दंष्ट्राभ्याम्) प्रजारक्षणशत्रुनाशनरूपाभ्यां दन्तविशेषाभ्याम् (हेतिः) वज्रः (तम्) शत्रुम् (सम् अधात्) निगृहीतवती (अभि) अभितः (इयम्) (तम्) (प्सातु) भक्षयतु (आहुतिः) मन्त्रेणाग्नौ हविःक्षेपः (समित्) समिधा (देवी) उत्तमगुणा (सहीयसी) बलवत्तरा ॥