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स॑प्तऋ॒षीन॒भ्याव॑र्ते। ते मे॒ द्रवि॑णं यच्छन्तु॒ ते मे॑ ब्राह्मणवर्च॒सम् ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सप्तऽऋषीन् । अभिऽआवर्ते । ते । मे । द्रविणम् । यच्छन्तु । ते । मे । ब्राह्मणऽवर्चसम् ॥५.३९॥

अथर्ववेद » काण्ड:10» सूक्त:5» पर्यायः:0» मन्त्र:39


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

विद्वानों के कर्तव्य का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (सप्तऋषीन्) सात व्यापनशीलों वा दर्शनशीलों [अर्थात् त्वचा, नेत्र, कान, जिह्वा, नाक, मन और बुद्धि, अथवा दो कान, दो नथने, दो आँख और मुख इन सात छिद्रों] की ओर (अभ्यावर्ते) मैं घूमता हूँ। (ते) वे (मे) मुझे (द्रविणम्) बल और (ते) वे (मे) मुझे (ब्राह्मणवर्चसम्) ब्राह्मण [ब्रह्मज्ञानी] का प्रताप (यच्छन्तु) देवें ॥३९॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य इन्द्रियों से यथावत् उपकार लेकर बली और ब्रह्मवर्चसी होवें ॥३९॥
टिप्पणी: ३९−(सप्तऋषीन्) अ० ४।११।९। त्वक्चक्षुःश्रवणरसनाघ्राणमनोबुद्धीः। अथवा। शीर्षण्यानि सप्तच्छिद्राणि। अन्यत् पूर्ववत् ॥