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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
विद्वानों के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (सूर्यस्य) सूर्य की (आवृतम्) परिपाटी [रीति पर] (अन्वावर्ते) मैं चला चलता हूँ, [उसकी] (दक्षिणाम्) वृद्धियुक्त (आवृतम् अनु) परिपाटी पर। (सा) वह [परिपाटी] (मे) मुझे (द्रविणम्) बल और (सा) वह (मे) मुझे (ब्राह्मणवर्चसम्) ब्राह्मण [ब्रह्मज्ञानी] का प्रताप (यच्छतु) देवे ॥३७॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य सूर्य के समान ईश्वरकृत नियम पर चलकर बल और ब्रह्मविद्या प्राप्त करे ॥३७॥
टिप्पणी: ३७−(सूर्यस्य) (आवृतम्) वृञ् वरणे-क्विप्, तुक्। परिपाटीम्। रीतिम् (अन्वावर्ते) निरन्तरं गच्छामि (दक्षिणाम्) दक्ष वृद्धौ शैघ्र्ये च-इनन्, टाप्। प्रवृद्धाम् (अनु) क्रियायोगे। अन्वावर्ते (आवृतम्) (सा) आवृत् (मे) मह्यम् (द्रविणम्) बलम्-निग० २।९। (यच्छतु) दाण् दाने। ददातु (सा) (मे) (ब्राह्मणवर्चसम्) ब्रह्महस्तिभ्यां वर्चसः। पा० ५।४।७८। अच् बाहुलकात्। ब्राह्मणस्य ब्रह्मज्ञानिनः पुरुषस्य प्रतापम् ॥