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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
बल की प्राप्ति के लिये उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - [हे मनुष्यो !] (यः) जो (वः) तुम्हारा (शिवतमः) अत्यन्त सुखकारी (रसः) रस है, (इह) यहाँ [संसार में] (नः) हमको (तस्य) उसका (भाजयत) भागी करो, (इव) जैसे (उशतीः) प्रीति करती हुई (मातरः) माताएँ ॥२॥
भावार्थभाषाः - जैसे माताएँ प्रीति के साथ सन्तानों को सुख देती हैं और जैसे जल संसार में उपकारी पदार्थ है, वैसे ही सब मनुष्य परस्पर उपकारी बन कर लाभ उठावें और आनन्द भोगें ॥२॥
टिप्पणी: २−शिव-तमः। अतिशायने तमबिष्ठनौ। पा० ५।३।५५। इति तमप्। अतिशयेन कल्याणकरः। रसः। रस आस्वादे−अच्। सारः। भाजयतम्। हेतुमति च। पा० ३।१।२६। इति भज सेवायां−णिच्-लोट्। भागिनः कुरुत। सेवयत। उशतीः। वश कान्तौ=अभिलाषे-शतृ। उगितश्च। पा० ४।१।६। इति ङीप्। वा छन्दसि। पा० ६।१।१०६। इति जसि पूर्वसवर्णदीर्घः। उशत्यः, कामयमानाः, प्रीतियुक्ताः। मातरः। १।२।१। जनन्यः ॥