पदार्थान्वयभाषाः - (देवाः) हे विद्वान् महात्माओ ! (ये) जो तुम (दिवि) सूर्यलोक में, (ये) जो (पृथिव्याम्) पृथिवी में, (ये) जो (अन्तरिक्षे) आकाश वा मध्यलोक में, (ओषधिषु) ओषधियों में, (पशुषु) सब जीवों में और (अप्सु) व्यापक सूक्ष्म तन्मात्राओं वा जल में (अन्तः) भीतर (स्थ) वर्तमान हो। (ते) वह तुम (अस्मै) इस पुरुष के लिये (जरसम्) कीर्तियुक्त (आयुः) जीवन (कृणुत) करो, [यह पुरुष] (अन्यान्) दूसरे प्रकार के (शतम्) सौ (मृत्यून्) मृत्युओं को (परि वृणक्तु) हटावे ॥३॥
भावार्थभाषाः - जो विद्वान् सूर्यविद्या, भूमिविद्या, वायुविद्या, ओषधि अर्थात् अन्न, वृक्ष, जड़ी-बूटी आदि की विद्या, पशु अर्थात् सब जीवों की पालनविद्या और जलविद्या वा सूक्ष्मतन्मात्राओं की विद्या में निपुण हैं, उनके सत्सङ्ग और उनके कर्मों के विचार से शिक्षा ग्रहण करके और पदार्थों के गुण, उपकार और सेवन को यथार्थ समझ कर मनुष्य अपना सब जीवन शुभ कर्मों में व्यतीत करें और दुराचरणों में अपने जन्म को न गमाकर सुफल करें ॥३॥